आध्यात्मिक चेतना देता है, दर्शन
भारतीय दर्शनों में अनेकों दर्शन के सिद्धान्त हैं, उनसे से कुछ उपनिषद के भी अपने मत हैं, जैसे
विद्या ददाति विनयम।
इत्यादि
अर्थात - जिसके पास विद्या है वह विन्रम हो ही जाता है।
पश्चिम में सुकरात के लिए लोग बोलते हैं कि आप बहुत बड़े ज्ञानी हैं
तब सुकरात ने कहा कि बहुत लोग कम जानते हैं, कि वह बहुत कम जानते हैं
और यही सच्चाई है,जानना यही है कि मैं नहीं जानता हूं।
तो पश्चिम में फिलोसोफी का मतलब है
ज्ञान से प्रेम होना।
जिज्ञासा यानी
ज्ञान की जिज्ञासा । ज्ञान के प्रति प्रेम की जिज्ञासा
परंतु भारतीय दर्शन इससे बिल्कुल भिन्न है।
कहते है, कि शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है शिक्षा जीवन है।
एक समझदार व्यक्ति बनने की प्रक्रिया में रहना इससे अच्छा जीवन क्या हो सकता है।
जिज्ञासा सबकी अलग-अलग होती है
जिज्ञासा किसी को खाने की किसी को पीने की सुबह दौड़ने किसी को पहनने की परंतु किसी को जानने की जिज्ञासा अंतर है।
परंतु जीवन में परम सत्य को जानकर जीवन जीना ये भी एक अलग सिद्धांत है।
अब बात करते हैं, भारतीय दर्शन की दर्शन की शुरुआत कहां से हुई भारत में कई मत है कई दर्शन है और सबके अलग-अलग सिद्धांत है ।
पर ज्यादातर का उद्देश्य यही की मनुष्य दुखों से कैसे मुक्त हो सके। अर्थात एक रूप में कहें तो मोक्ष, कैवल्य, समाधि का मिलना।
और यही वास्तविक सच्चाई है। कि व्यक्ति अपने मूल कर्तव्य को जान जाए जो इसका अंतिम लक्ष्य है।
यह भारतीय दर्शन से आप सीख सकते है।
और सभी दर्शनों में से अति प्राचीन है,
सांख्य दर्शन
जो केवल दो तत्वों की सहायता से उस मोक्ष तक पहुंचा देता है।
और वो तत्व है, जड़, और चेतन
जड़ के अलग अलग नाम है,
कारण, प्रकृति, मूल, प्रधान, अव्यक्त,
और चेतन मतलब पुरुष, ज्ञ, आत्मा
और उन्हीं दो तत्वों में सभी रहस्य छुपा है।
तो आइए जानते है। इस दर्शन को
भारतीय वैदिक दर्शन
भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को छह कोणों से समझने की कोशिश की है। वे जानते थे कि मानव की सबसे बड़ी इच्छा दुख से छुटकारा है। भारतीय दर्शन शास्त्रों, उनके आधारभूत वेद, तथा अन्य वैदिक साहित्य- उपनिषदों, स्मृतियों आदि में इन तत्त्वों का विषद विवेचन है-
न्याय
गोतम मुनि.
नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः
अर्थ : जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है।
महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
वैशेषिक
कणाद मुनि
महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
सांख्य
कपिल मुनि.
इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित २४ कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष २५ वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।
योग
पतंजलि मुनि.
इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत[मृत कड़ियाँ] के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
पूर्वमीमांसा जैमिनि मुनि.
मीमांसासूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है जिसके रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। यदि योग दर्शन अंतःकरण शुद्धि का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी uके विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
उत्तर मीमांसा व्यास मुनि.
महर्षि व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहारकर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है।
आगे चलकर वेदान्त के अनेकानेक सम्प्रदाय (अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि) बने।